श्री गुरु राम राय संस्कृत महाविद्यालय में मनाया गया हरेला पर्व, रोपे आँवला, नाशपात्ती तथा अंजीर सहित कई फलदार व औषधीय पौधे
देहरादून। राजधानी स्थित श्री गुरु रामराय संस्कृत महाविद्यालय परिसर में हरेला पर्व के उपलक्ष्य पर आँवला, नाशपात्ती तथा अंजीर सहित अनेक प्रकार के फलदार और औषधीय पौधे रौपकर हरेला पर्व मनाया गया। साथ ही सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किये गए।
कार्यक्रम अध्यक्ष प्राचार्य डॉ. राम भूषण बिजल्वाण ने कहा कि आदिकाल से ही हमारी परंपरा प्रकृति के संरक्षण की रही है। मत्स्य पुराण में वर्णित है कि ‘दश कूप समा वापी, दशवापी समोहद्रः। दशहृद समः पुत्रो, दशपुत्रो समो द्रुमः।’ अर्थात दस कुओं के बराबर एक बावड़ी होती है, दस बावड़ियों के बराबर एक तालाब, दस तालाबों के बराबर एक पुत्र है और दस पुत्रों के बराबर एक वृक्ष होता है। उन्होंने वृक्षारोपण की महिमा को बताते हुए कहा कि हर वर्ष हजारों पौधे रोपे जाते हैं, लेकिन अगले वर्ष देखभाल के अभाव में वे नष्ट हो जाते हैं। उन्होंने पौधरोपण के साथ-साथ उनके संरक्षण पर भी विशेष जोर देते हुए कहा कि हरेला पर्व पर्यावरण संरक्षण का संदेश देता है। हरेला पर्व उत्तराखंड की लोक संस्कृति का महत्वपूर्ण पर्व है।
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यह पर्व सुख समृद्धि और पर्यावरण संरक्षण की कामना के उद्देश्य से मनाया जाता है। हर व्यक्ति को पौधे लगाकर इस पर्व के महत्व को समझना चाहिएं। वृक्षों के बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। वृक्ष हैं तो जीवन है। आज हर व्यक्ति को पर्यावरण के प्रति जागरूक होने की जरूरत है। सभी को अपने घर पर या आस-पास पौधे अवश्य लगाने चाहिये जिससे हम पर्यावरण को संतुलित रख सकें। ‘पश्यैतान् महाभागान् पराबैंकान्तजीवितान्। वातवर्षातपहिमान् सहन्तरे वारयन्ति नः’ अर्थात वृक्ष इतने महान हैं कि वे केवल दान के लिए जीते हैं। वे तूफान, बारिश और ठंड को अपने आप सहन करते हैं।
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कार्यक्रम को सम्बोधित करते हुए सहायकचार्य डॉ. शैलेन्द्र प्रसाद डंगवाल ने शुद्ध जलवायु तथा प्राकृतिक संतुलन के लिए पेड-पौधों के महत्व पर विस्तृत रूप से प्रकाश डाला। इसके अलावा मानव-जीवन के लिए पौधारोपण किए जाने सहित पेड-पौधों के रख-रखाव तथा इन्हें संरक्षित करने पर बल देते हुए कहा कि वृक्षों के दोहन से उत्पन्न दुष्परिणामों का मानव- जीवन पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।
इस मौके पर उपस्थित सभी ने पर्यावरण संरक्षण और संवर्द्धन का संकल्प लिया। ‘छायामन्यस्य कुर्वन्ति तिष्ठन्ति स्वयमातपे । फलान्यपि परार्थाय वृक्षाः सत्पुषा इव॥’ यानि वृक्ष दूसरे को छाँव देता है, खुद धूप में खडा रहता है, फल भी दूसरों के लिए होते हैं; सचमुच वृक्ष सत्पुरुष जैसे होते हैं। इस अवसर पर डॉ. सीमा बिजल्वाण, आचार्य नवीन भट्ट, आचार्य नीरज फोन्दणी आदि के साथ छात्र-छात्राएं उपस्थित रहे हैं।