सीएम धामी ने प्रदेशवासियों को दी इगास/बूढ़ी दीपावली की बधाई, जानें क्यों मनाया जाता है ये पर्व…
उत्तराखंड में बग्वाल, इगास मनाने की परंपरा है। दीपावली को यहां बग्वाल कहा जाता है, जबकि बग्वाल के 11 दिन बाद एक और दीपावली मनाई जाती है, जिसे इगास कहते हैं। पहाड़ की लोकसंस्कृति से जुड़े इगास पर्व के दिन घरों की साफ-सफाई के बाद मीठे पकवान बनाए जाते हैं और देवी-देवताओं की पूजा की जाती है। साथ ही गाय व बैलों की पूजा की जाती है। शाम के वक्त गांव के किसी खाली खेत अथवा खलिहान में नृत्य के साथ भैलो खेला जाता है। भैलो एक प्रकार की मशाल होती है, जिसे नृत्य के दौरान घुमाया जाता है।
मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने प्रदेशवासियों को इगास/बूढ़ी दीपावली की बधाई एवं शुभकामनाएं दी। मुख्यमंत्री ने कहा कि हमारे लोक पर्व एवं समृद्ध सांस्कृतिक विरासत सामाजिक जीवन में जीवंतता प्रदान करने का कार्य करते हैं। हम अपनी लोक संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए प्रयासरत हैं। उन्होंने कहा कि किसी भी राज्य की लोक संस्कृति एवं लोक परंपरा उस राज्य की आत्मा होती है। मुख्यमंत्री ने कहा कि हमारी लोक संस्कृति एवं परंपरा देवभूमि की पहचान है। उन्होंने कहा कि हम राज्य की लोक संस्कृति के संरक्षण एवं संवर्धन के लिये संकल्पबद्ध हैं।
मुख्यमंत्री ने कहा कि इगास बग्वाल से कई एतिहासिक पहलु भी जुड़े हैं। हमारे लोग इगास पर्व पर अपनी परम्पराओं के साथ अपने पैतृक गांवों से भी जुड़ सके इसके लिए राज्य में इगास पर्व पर सार्वजनिक अवकाश की परंपरा शुरू की गई है। उन्होंने कहा कि हमारी युवा पीढ़ी भी अपनी लोक संस्कृति एवं लोक पर्वों से जुड़े इसके लिए भी प्रयास होने चाहिए। मुख्यमंत्री ने कहा कि अपने लोक पर्वों के माध्यम से अपनी संस्कृति को संरक्षित करने तथा प्रकृति के संरक्षण की भी हमारी परंपरा है। मुख्यमंत्री ने कहा कि उत्तराखण्ड में विभिन्न संस्कृति और रीति -रिवाजों को मानने वाले लोग निवास करते हैं, उत्तराखण्ड एक लघु भारत का रूप है। इस अवसर पर मुख्यमंत्री ने प्रदेशवासियों की सुख-शांति एवं समृद्धि की भी कामना की है।
बता दें कि ला ओ भैला, चल खेली औला, नाचा कूदा मारा फाल, फिर बौड़ी एगी बग्वाल … लोक गायक गढ़रत्न नरेंद्र सिंह नेगी के इस गीत में गांवों में दीवाली और इगास उत्सव की महत्ता को बयां किया गया है। दीपावली के बाद इगास का त्योहार गांव-गांव श्रद्धा और उल्लास के साथ मनाया जाता है। घरों में विशेष साज-सज्जा के साथ तरह-तरह के पकवान तैयार किए जाते हैं। पारंपरिक भैलो नृत्य इस पर्व का खास आकर्षण होता है, जो आपसी सौहार्द और सहभागिता का संदेश देता है। रुद्रप्रयाग और चमोली जिले के कई गांव भैलो नृत्य की परंपरा को जीवंत रखे हुए हैं
क्या होता है भैलो
तिल, भंगजीरे, हिसर और चीड़ की सूखी लकड़ी के छोटे-छोटे गठ्ठर बनाकर इन्हें विशेष रस्सी से बांधकर भैलो तैयार किया जाता है। बग्वाल के दिन पूजा अर्चना कर भैलो का तिलक किया जाता है। फिर ग्रामीण एक स्थान पर एकत्रित होकर भैलो खेलते हैं। भैलो पर आग लगाकर इसे चारों ओर घुमाया जाता है। कई ग्रामीण भैलो से करतब भी दिखाते हैं। पारंपरिक लोकनृत्य चांछड़ी और झुमेलों के साथ भैलो रे भैलो, काखड़ी को रैलू, उज्यालू आलो अंधेरो भगलू आदि लोकगीतों के साथ मांगल व देवी-देवताओं की जागर गाई जाती हैं।
क्यों मनाई जाती है इगास पारंपरिक भैलो गीत
पौराणिक मान्यता के अनुसार भगवान श्रीराम 14 वर्ष के वनवास के बाद जब अयोध्या लौटे थे, तो लोगों ने अपने घरों में दीये जलाकर उनका स्वागत किया था। लेकिन कहा जाता है कि तब गढ़वाल मंडल पर्वतीय क्षेत्रों में यह सूचना दीपावली के 11 दिन बाद कार्तिक शुक्ल एकादशी को मिली, जिससे वहां दीपावली के 11 दिन बाद बूढ़ी दिवाली (इगास) धूमधाम से मनाई जाती है। इसी पर्व को लेकर एक अन्य मान्यता यह भी है कि वीर माधो सिंह भंडारी की सेना दुश्मनों को परास्त कर दीपावली के 11 दिन बाद जब वापस लौटी तो स्थानीय लोगों ने दीये जलाकर सैनिकों का स्वागत किया।
माधो सिंह भंडारी की वीरता से है इसका संबंध
माधो सिंह भंडारी 17 वीं शताब्दी में गढ़वाल के प्रसिद्ध भड़ (योद्धा) हुए। माधो सिंह मलेथा गांव के थे। तब श्रीनगर गढ़वाल के राजाओं की राजधानी थी।बमाधो सिंह भड़ परंपरा से थे। उनके पिता कालो भंडारी की बहुत ख्याति हुई। माधो सिंह, पहले राजा महीपत शाह, फ़िर रानी कर्णावती और फिर पृथ्वीपति शाह के वजीर और वर्षों तक सेनानायक भी रहे।
तब गढ़वाल और तिब्बत के बीच अक्सर युद्ध हुआ करते थे। दापा के सरदार गर्मियों में दर्रों से उतरकर गढ़वाल के ऊपरी भाग में लूटपाट करते थे। माधो सिंह भंडारी ने तिब्बत के सरदारों से दो या तीन युद्ध लड़े। सीमाओं का निर्धारण किया। सीमा पर भंडारी के बनवाए कुछ मुनारे (स्तंभ) आज भी चीन सीमा पर मौजूद हैं। माधो सिंह ने पश्चिमी सीमा पर हिमाचल प्रदेश की ओर भी एक बार युद्ध लड़ा। एक बार तिब्बत युद्ध में वे इतने उलझ गए कि दिवाली के समय तक वापस श्रीनगर गढ़वाल नहीं पहुंच पाए। आशंका थी कि कहीं युद्ध में मारे न गए हों। तब दिवाली नहीं मनाई गई।
दिवाली के कुछ दिन बाद माधो सिंह की युद्ध विजय और सुरक्षित होने की खबर श्रीनगर गढ़वाल पहुंची। तब राजा की सहमति पर एकादशी के दिन दिवाली मनाने की घोषणा हुई।तब से इगास बग्वाल निरंतर मनाई जाती है। गढ़वाल में यह लोक पर्व बन गया। हालांकि कुछ गांवों में फिर से आमावस्या की दिवाली ही रह गई और कुछ में दोनों ही मनाई जाती रही। इगास बिल्कुल दीवाली की तरह ही मनाई जाती है। उड़द के पकोड़े, दियों की रोशनी, भैला और मंडाण ……..
शायद यह 1630 के आसपास की बात है। इन्हीं माधो सिंह भंडारी ने 1634 के आसपास मलेथा की प्रसिद्ध भूमिगत सिंचाई नहर बनाई, जिसमें उनके पुत्र का बलिदान हुआ। जीवन के उत्तरार्ध में उन्होंने तिब्बत से ही एक और युद्ध लड़ा, जिसमें उन्हें वीरगति प्राप्त हुई। इतिहास के अलावा भी अनेक लोकगाथा गीतों में माधो सिंह की शौर्य गाथा गाई जाती है। इगास दिवाली पर उन्हें याद किया जाता है –
“”दाळ दळीं रैगे माधो सिंह
चौंऴ छड्यां रैगे माधो सिंह
बार ऐन बग्वाळी माधो सिंह
सोला ऐन शराद मधो सिंह
मेरो माधो निं आई माधो सिंह
तेरी राणी बोराणी माधो सिंह ……….”
वीरगाथा गीतों में उनके पिता कालो भंडारी, पत्नियां रुक्मा और उदीना तथा पुत्र गजे सिंह और पौत्र अमर सिंह का भी उल्लेख आता है। मलेथा में नहर निर्माण, संभवत पहाड़ की पहली भूमिगत सिंचाई नहर पर भी लोक गाथा गीत हैं।
रुक्मा का उलाहना –
” योछ भंडारी क्या तेरू मलेथा
जख सैणा पुंगड़ा बिनपाणी रगड़ा ……..”
और जब नहर बन जाती है तब –
भंडारी रुक्मा से कहता है –
” ऐ जाणू रुक्मा मेरा मलेथा
गौं मुंड को सेरो मेरा मलेथा ……….”
बहुत विस्तृत है माधो सिंह भंडारी की इतिहास शौर्य गाथा और लोकगाथा भी। उनकी मृत्यु शायद 1664 – 65 के बाद हुई। इंद्रमणि बडोनी जी के निर्देशन में माधो सिंह भंडारी से सम्बन्धित गाथा गीतों को 1970 के दशक में संकलित करके नृत्य नाटिका में ढाला गया था। एक डेढ़ दशक तक दर्जनों मंचन हुए। स्वर और ताल देने वाले लोक साधक 85 वर्षीय शिवजनी अब भी टिहरी के ढुंग बजियाल गांव में रहते हैं …….
लोग इगास तो मनाते रहे लेकिन इसका इतिहास और इसकी गाथा भूलते चले गए। आधा गढ़वाल भूल गया, जबकि आधा गढ़वाल में अब भी बड़े उत्साह से इगास मनाई जाती है। खास बात यह भी समझें कि मध्य काल में उत्तर की सीमाएं माधो सिंह, रिखोला लोदी, भीम सिंह बर्त्वाल जैसे गढ़वाल के योद्धाओं के कारण सुरक्षित रही हैं। चीन से भारत का युद्ध आजादी के बाद हुआ लेकिन तिब्बत से तो गढ़वाल के योद्धा शताब्दियों तक लड़ते रहे। पर्वत की घाटियों में ही तिब्बत के सरदारों को रोकते रहे। सिर्फ गढ़वाल ही नहीं भारत भूमि की रक्षा भी की। राहुल सांकृत्यायन के अनुसार एक बार तो टिहरी के निकट भल्डियाणा तक चले आए थे तिब्बत के सरदार।