लोकपर्व इगास: लोकगीतों संग भैलो खेलना होगा रोमांचक, जानिए मान्यताएं
अभिज्ञान समाचार/ देहरादून। उत्तराखंड की संस्कृति और लोक पर्व विविध है। इन्हीं परंपराओं और लोकपर्वों में इगास बग्वाल अलग स्थान रखती है। हालांकि स्थानीय मान्यताएं अलग अलग हैं लेकिन इगास लोकपर्व परंपरागत और सर्वमान्य है। आज भैलो और परंपरागत नृत्य के साथ पहाड़ के व्यंजनों की खुशबू गांव को महकाती हैं। कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी को इगास मनाई जाती है। यह पारंपरिक दीपावली से थोड़ी अलग होती है इस दिन आतिशबाजी नहीं होती बल्कि लोग भैलो बनाकर खुशी के इस पर्व को धूमधाम से मनाते हैं। इस दिन गांव में पारंपरिक पकवान पूड़ी, स्वाले व उड़द की दाल की पकौड़ी और कई स्थानीय पकवान बनाकर अपने इष्ट देव को भोग लगाने के बाद खुशी से सपरिवार खाई जाती है।
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इगास पर मान्यताएं
पहली मान्यता:
उत्तराखंड के पर्वतीय जिलों में एकादशी को इगास कहते हैं। माना जाता है कि गढ़वाल में भगवान राम के अयोध्या लौटने की सूचना ग्यारह दिन बाद मिली थी। सूचना पाते ही लोगों में गजब का उत्साह दिखा और सभी खुशी से झूम उठे। इसीलिए यह पर्व मनाया जाता है। मान्यता है कि गांवों में खुशी मनाने के लिए लोग खलिहान में आग जलाकर लोकगीतों पर खूब थिरकते और छिलकों (चीड़ की लकड़ी के लीसायुक्त टुकड़े) को हरी बेल से बांधकर अपने चारों ओर तेजी से घुमाते हुए भैलो खेलते।
दूसरी मान्यता:
एक और स्थानीय मान्यता गढ़वाल के वीर माधो सिंह भंडारी से जुड़ी है। माना जाता है कि भण्डारी के नेतृत्व में गढ़वाल की सेना ने दापाघाट, तिब्बत का युद्ध जीतकर विजय प्राप्त की थी,और दीपावली के बाद ग्यारहवें दिन गढ़वाल सेना अपने घर पहुंची थी। युद्ध जीतने और सैनिकों के घर पहुंचने की खुशी में तब दीपावली मनाई गई थी।
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गढ़वाल की चार अलग-अलग बग्वाल
- मान्यता के अनुसार पहली दीवाली (बग्वाल) कर्तिक महीने में कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि को सभी मनाते हैं।
- जबकि दूसरी दीवाली अमावस्या तिथि के दिन लोक परंपराओं के साथ आतिशबाजी करते हुए मनाई जाती है।
- बड़ी बग्वाल (दीवाली) के ठीक 11 दिन बाद आने वाली कर्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को इगास बगवाल मनाई जाती है।
- चौथी बग्वाल, बड़ी बग्वाल के ठीक एक महीने बाद मार्गशीष माह (दिसंबर) की अमावस्या तिथि को आती है। इसे रिख बग्वाल भी कहते हैं। इसको प्रमुखतया गढ़वाल के उत्तरकाशी व टिहरी जनपद के विभिन्न क्षेत्रों में मनाया जाता है।
क्या होता है भैलो
भैलो हरी मजबूत बेल पर बारीक लकड़ियों (छिलके) बांधकर बनाया जाता है। इस दिन भैलो खेलने का खासकर युवाओं और धियाणियों (माता व बहनों) में खास उत्साह होता है। इसको बनाने के लिए लोग दो-तीन दिन पहले जंगलों से लीसायुक्त लकड़ी लाकर उसे पतले और लंबे टुकड़ों में चीर कर उसे बेल नुमा टहनियों से बांधते हैं। दीपावली के दिन शाम को उसकी पूजा अर्चना कर भैलो का तिलक किया जाता है। फिर खाना खाने के बाद गांव के पास के खेतों में जाकर उसके दोनों छोरों में आग लगाकर अपने शरीर के आस पास घुमाते हुए लोकगीतों को गाते हुए गांव की सुख समृद्धि की कामना की जाती है।